एक बार फिर आपदा ने हम सबको आईना दिखा दिया। पहाड़ों की इस आपदा ने दो चीजों की तरपफ सापफ इशारा कर दिया, पहला कि हमने पिछली आपदाओं से कोई शिक्षा नहीं ली और दूसरा सरकारों वेफ लिए आपदा प्रबंधन चिंता आपदा तक ही सीमित है ना आगे ना पीछे। सरकारें इसे जानती तक नहीं।
उत्तराखंड की आपदा ने करीब 200 से भी अध्कि लोगों को काल के गर्त में पहुँचा दिया और 1000 से श्यादा लोग लापता हैं और हशारों की संख्या में लोग बेघर पडे़ हैं। करीब 60 हशार यात्रियों के पहाड़ों में पफंसे होने की खबर है और सैकड़ों गाड़ियाँ बह गईं, गाँवों के हालातों की तो पूरी खबर भी नहीं, पर मोटा-मोटा हिसाब तो यह कहता है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी, संवेदनशील राज्य एक बार पिफर हताहत हुआ है।
कहीं ना कहीं प्रवृफति रुष्ट है। हमने इसके साथ गत दशकों में जो भी किया यह उसी का परिणाम आज हमारे सामने है। असल में पहाड़ी राज्यों के स्थापित करने के पीछे जो भी राजनीतिक मंशा रही हो, पर शायद सबसे बड़ी आड़ राज्यों की माँग के पीछे यही थी कि इन राज्यों की परिस्थिति विषम है, दुर्गम क्षेत्रा, नदियों के भण्डार, वनों के आच्छादन आदि ने यहाँ पहले ही स्थानीय लोगों के जीवन को कठिनाईयों से भर रखा है। पहाड़ों की छोटी दुर्घटना ही यहाँ बडे़ मायने रखती है, ऐसे में इन राज्यों की प्रगति और विकास मात्रा आर्थिक बेहतर ढाँचे, सड़कांे वेफ जाल पर ही नहीं तय किया जा सकता, क्योंकि ऐसा होता तो पिछले 12 साल में उत्तराखंड किसी भी प्रगति के दावे करलें, लेकिन एक ही तगड़ी बारिश इस राज्य वेफ नीतिकारों को आइना दिखाने वेफ लिए कापफी है।
पहाड़ी राज्यों में विकास के लिए प्राथमिकताएँ तय करना अब हमारा पहला दायित्व होना चाहिए। इन राज्यों में आपदा प्रबंध्न, पहले कार्यो में होना चाहिए। हम अपने आपदा प्रबंध्न विभागों के हालातों के लिए उन्हें कतई भी दोषी नहीं ठहरा सकते, क्यांेकि इस महत्वपूर्ण विभाग मे दस लोगों की तैनाती भर ही मंेे जब काम निबटाने की सोची जाएगी तो क्या होगा?यह विभाग संसाधनों से सबसे कमजोर विभागों में एक है, हाँ जब आपदा आती है तो विभागों को कोसकर मुक्ति हो जाती है। पहाड़ी राज्यों के आपदा प्रबंधन केन्द्र सरकार का विषय हो तो बेहतर है क्योंकि आपदा आने पर जिस केन्द्र के पास सहायता के लिए हमें बार-बार भागना पड़ता है यही इसकी सीध्ी जिम्मेदारी लेगा तो शायद वुफछ भला हो जाए। राज्यों में आयी पिछली आपदाओं ने यह तो बता ही दिया कि यहाँ गाँव आपदा में मरने-डूबने के लिए छोड़ दिए जाते है।
यह भी सच है कि इस तरह की आपदाएँ बढ़ती जाएँगी। कारण सापफ है, हमारी बढ़ती विकास की लोलुपता ही इसका बड़ा कारण है। प्रवृफति से लगातार छेड़छाड़ को ना हम रोक पाने में सक्षम हंै और ना ही इसके प्रकोप से बचने में। अतिवृष्टि, बाढ़, पहाड़ों का एक ऐसा अंग बन चुकी है जिसे हर वर्ष तबाही मचानी ही है। भूवंफप जैसी आपदा 10 वर्षों मे एक बार आकर हिलाती हैं, पर अब उससे श्यादा और तीव्र नुवफसान करने वाली अतिवृष्टि, हर वर्ष लगातार नुवफसान पर उतारू है। सरकार की विकास गाड़ी उतने कदम आगे नहीं चलती जितने कदम पीछे चलती है। एक जो बड़ी बात इन आपदाओं को लेकर प्रमुख है। वह है इन आपदाआंे के आगोश में शहर व कस्बे उतने नहीं आते जितने की गाँव और इनकी कहीं कोई कहा-सुनी नहीं है। अब दिल्ली में यमुना वेफ पानी का जलस्तर जरा-सा बढ़ जाए तो संसद ही परेशान हो जाती है और राजधानी में अपफरा-तपफरी मच जाती है, परन्तु गाँवों के प्रति हम असंवेदनशील ही रहते और इस तरह की घटनाओं की हमें आदत-सी पड़ जाती है, आपदा के हल्ले के ठंडे होने का इंतजार करते हैं।
देश के आपदा प्रबंध्न परिषद पर कैग ने ही अंगुली उठा दी और कहा कि इस केन्द्र ने किसी भी प्रभावी योजना को कोई अमलीजामा नहीं पहनाया। यह सही भी है, क्योंकि ना तो आपदा से बचने की कोई खबर होती है और ना ही आपदा के समय सही प्रबंध्ंन की। इस परिषद के कार्यों पर तो नए सिरे से बहस की आवश्यकता है। इस परिषद में कितने भी विशेषज्ञ हों पर इनमें से कितने ऐसे हैं जिन्होंने स्वयं आपदा को झेला हो। शायद ही कोई हो जब तक आप इन परिस्थितियों के अनुभवों से परिचित नहीं होंगे, तब तक सुझााव देने की योग्यता भी नहीं रखते।
आपदा प्रबंध्न कार्य आॅपिफस से बैठकर व वंफप्यूटर पर संचालित नहीं होगा। अनुभवी संगठन/व्यक्ति ही इसको सही दिशा दे सकते हंै। यह ही जरूरी है कि देश का आपदा प्रबंध्न पंगुु है और कैग की अँगुली उठनी लाजमी ही है।
इस तरह के सरकारी संगठनों में दिशा की भारी कमी दिखाई देती है, केन्द्र का यह संगठन बैठकों में श्यादा नजर आता है और श्यादा से श्यादा राज्यों के आपदा प्रबंध्न में कभी-कभार किसी कार्यशाला में चिन्ता का विषय छेड़कर निवृत्त हो जाता हैं।
कम से कम हमें सही रणनीति तो तय ही करनी ही चाहिए। इस आपदा विभाग को मात्रा चुस्त-दुरस्त करने की आवश्यकता ही नहीं बल्कि इसे सही मायनों में संसाधनों से जोड़कर इन्हें उपयोगी बनाना होगा। वरना आपदा प्रबंध्न वुफछ खास पोस्टर व पर्चो में ही सिमट कर रह जाएगा।
एक दूसरी बड़ी तैयारी की भी आवश्यकता है। इस तरह की आपदाएँ सरकारी भरोसों पर नहीं छोड़ी जा सकती। इसमें जागरूक नागरिक और संगठनों को मजबूत करना होगा। ऐसे बहुत से नागरिक संगठन हैं जो आपदा पीड़ितों के बीच में जाकर दुःख-दर्द में भागीदारी करना चाहते हंै। मगर इनकी तैयारी हृदय में होती है और सही प्रशिक्षण का अभाव उन्हें दृढ़निश्चय के बाद भी असहाय कर देता है। वर्तमान परिस्थितियों में ऐसे संगठनों और नागरिकांे को प्रशिक्षित कर आपदा के समय इस तरह की सेवाओं से जोड़ देना चाहिए। क्योंकि देश के संकट का सवाल है, यह व्यक्ति का नैतिक दायित्व है कि वह किसी भी रूप में अपनी सेवाएँ दे।
विदेशों में ही देखिए जहाँ हर नागरिक को हर परिस्थिति के लिए तैयार किया जाता है। अब चाहे वो देश की रक्षा का सवाल हो या पिफर आपातकालीन परिस्थितियाँ। हर व्यक्ति को इस योग्य बनाना ही चाहिए ताकि वह अपनी इच्छा होने पर अपनी सेवाएँ दे सवंेफ। ऐसे में अपने देश में हर उस व्यक्ति को तैयार करना चाहिए जो स्वयंसेवक के रूप में अपनी सेवाएँ देना चाहता हो। वर्तमान में रोजाना घटती घटनाएँ और आपदा स्वूफली विषय ही नहीं है। आखिर आने वाली पीढ़ी को आपदा के प्रति तैयार करने का दायित्व भी हमारा है। यह बहुत जरूरी है कि हम आपदा व इसके प्रबंध्न को स्वूफलों काॅलेजों में ले जाएँ, ओर कुछ नहीं तो स्वयं रक्षा के हित में यह सार्थक होगा।
आपदा के नए रूप हमारे पास आने ही हैं ऐसे में सरकारी तैयारी हो जो हो पर आम लोगों को इसके लिए तैयार करना होगा। क्यांेकि ये वे ही हैं जो आपदा का बड़ा शिकार बनते हैं। राजनीतिक नीतिकार आपदा के इन हमलों से बहुत दूर हैं और इसलिए असमर्थ भी हंै। अब सबसे बड़ी चुनौती यही है कि आपदा से पहले बीच और बाद के गुरों को हम कैसे गाँव, घर तक ले जा सवंेफ ताकि वह अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम हों। और साथ में उन सभी संगठनों व जागरूक व्यक्तियों को मजबूत करने की जो अपनी सेवाओं को ऐसी विकट परिस्थितियों में देना चाहते हैं। आपदा अब सरकारी भरोसे कतई नहीं छोड़ी जा सकती। आपदा के सारे गुर हमारी रक्षा के लिए हमारे ही काम आने वाले हैं। ऐसी विपत्ति के समय जानमाल की ही चिन्ता खाती है सरकार की याद तो वैसे भी नहीं आती।
आपदा पर उठते सवाल