पर्यावरण हमारी संस्कृति का मूल आधर


ईश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना पाँच मूलभूत मौलिक तत्वों ;पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायुद्ध से की है। यही मूलभूत पंचतत्व पर्यावरण के मौलिक अवयव हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसकी पुष्टि की है -
''क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा।
पंचरचित यह अध्म शरीरा।।'' 
                ;रामचरितमानसद्ध
    हमारे चारों ओर व ऊपर-नीचे का वह भौतिक व सामाजिक परिवेश जिसके अन्तर्गत प्रकृति के पंचमहातत्व सम्मिलित हैं। पृथ्वी पर उगने वाले वनस्पति, पेड़-पौध्े, पफल-पफूल व इस पर चलने वाले जीव-जन्तु और पशु-पक्षी और अचर पर्वत, नदियाँ और खनिज पदार्थ आदि पर्यावरण के अंग हैं। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में जो कुछ भी है - पर्यावरण है।
    पर्यावरण के दो प्रकार हैं। जैविक और अजैविक। यह जैविक और अजैविक तत्व यौगिक रूप से विशिष्ट कार्यशैली द्वारा एक तंत्रा की रचना करते हैं, जिसे परिस्थितिकीय तंत्रा कहते हैं। इस तंत्रा में सजीव प्राणी आपस में अपने भौतिक वातावरण से ऊर्जा, द्रव्य आदि का आदान-प्रदान स्वचालित क्रिया प्रणाली द्वारा करते हैं। इस आदान-प्रदान के अभाव में पृथ्वी पर जीवन असंभव है। वास्तविकता यही है कि पर्यावरण भौतिक तथा जैविक तत्वों का एक ऐसा योग है जिसमें से एक के भी अस्तित्व पर यदि खतरा हो तो दूसरे के अस्तित्व पर स्वतः ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। आज संसार जिस परिस्थितिकीय तंत्रा व पर्यावरण के बीच पूर्ण सामंजस्य की वैज्ञानिक विचारधरा से प्रभावित है, हमारे ट्टषि-मुनियों ने तो सामंजस्य के इस महत्व का वर्णन युगों पहले सृष्टि के आदिकाल में ही वेदों में विस्तार से किया है। कल्याणकारी संकल्पना, शु( आचरण, निर्मल वाणी एवं सुनिश्चित गति ट्टग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की मूल विशेषता मानी जाती है और पर्यावरण संतुलन भी मुख्यतः इन्हीं गुणों पर आश्रित है। ट्टग्वैदिक सूक्त उषस्, पूषन्, वरुण, इन्द्र, पर्जन्य आदि इसके उदाहरण हैं। इसीलिए वैदिक मनीषियों ने द्युलोक से लेकर मनुष्य तथा सम्पूर्ण भूतों के लिए शांति की कामना की है। शुक्ल यजुर्वेद में ट्टषि प्रार्थना करता है - 'द्यौ शांति रंतरिक्षं शांतिः पृथिवी शांतिरापः शांति रोषध्याः शांति.......।' उपर्युक्त मंत्रा में वैदिक ट्टषि ने कितनी उत्तम प्रार्थना की है, जिसमें पर्यावरण के प्रमुख घटकों जैसे - पृथिवी, जल, औषध्,ि वनस्पति व अंतरिक्ष लोक को सम्यक् संतुलन की दशा में रहने की कामना की गयी है। 
    आज विश्व मानवता की चिन्ता के केन्द्र में पर्यावरण प्रदूषण का मुद्दा है। वैश्विक स्तर पर अत्यन्त गम्भीरता से इस पर चर्चा हो रही है। पर्यावरण आने वाली पीढ़ियों के लिए किस तरह सुरक्षित रखा जाए? वर्तमान समय में सर्वाध्कि ज्वलन्त प्रश्न है। जबकि हमारे वैदिक ट्टषियों ने पर्यावरण की महत्ता को बहुत पहले ही जान लिया था। उनका पर्यावरण की रक्षा संबंध्ी बोध् अत्यन्त वैज्ञानिक और विकसित था। उन्होंने पर्यावरण के संबंध् मंे बहुत व्यवस्थित व सुनियोजित चिन्तन प्रस्तुत किया है। वैदिक ट्टचाएँ इसका प्रमाण हैं।
   ट्टग्वेद के अग्नि, अरण्य, उषा, पृथिवी औद इन्द्रादि सूक्तों से पता चलता है कि वैदिक श्र(ाभाव से प्रकृति को देव के रूप में कल्पित कर मंत्रों द्वारा पर्यावरण की पूजा करता था। वेद कालीन मनीषी उनकी महत्ता से परिचित थे तभी तो वैदिक ट्टषि द्वारा शु( वातावरण, शु( जल, शु( वनौषध् िव शु( अन्न द्वारा दीर्घायु की प्राप्ति के लिये कामना की गयी है। वेद ऐसे उल्लेखों से भरे पड़े हैं -   'शु(ा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं निदध्मः।'
   इस पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए जिन देवताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है उनमें - सूर्य, वायु, वरुण एवं अग्नि आदि की स्तुति की गई है।
    ट्टग्वेद के दसवें मण्डल का एक सम्पूर्ण सूक्त वनदेवता के लिये लिखा गया, इसी से पर्यावरण की सुरक्षा में वृक्षों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। वृक्षों के अभाव के कारण पर्यावरण में अनेक समस्याएँ आती हैं। अतः इन समस्याओं के निवारण के अथर्ववेद में कहा गया, ये सम्पूर्ण हरे भरे पर्वत, जंगल इत्यादि नहीं काटने चाहिए, क्योंकि ये तो सबका कल्याण करने वाले हैं। इस प्रकार मंत्रों में वनौषध्यिों की रक्षा कर जगत के कल्याण की कामना की गयी है। मत्स्य पुराण में वृक्षों के महत्व को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्रा और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।
    अथर्ववेद का 12 वां काण्ड पृथिवि सूक्त के नाम से विख्यात है, उसमें प्रतिपादित है कि यह पृथिवि हमें सर्वस्व देने वाली है और माता के समान है, इसका संरक्षण करना हम सभी जीवधरियों का कर्तव्य है।
    वेदकालीन समाज में न केवल पर्यावरण के सभी पक्षों पर  सावधनीपूर्वक विचार किया गया है वरन् उसकी रक्षा व महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। वैदिक मान्यता है कि पर्यावरणीय घटकों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। वृक्षों को काटना, वृक्षों के प्रति हिंसा है। जलस्त्रोतों में मलादि का त्याग भी जल के प्रति हिंसा है तथा पृथ्वी का दुरुपयोग अर्थात् विभिन्न प्रकार के अवांछित रासायनिक खादों का प्रयोग करके अतिरिक्त उपज प्राप्त करने की चेष्टा भी पृथ्वी के प्रति हिंसा ही है। वेदों में वनस्पतियों को शांति का कारण भी बताया गया है - 'वनस्पति शामितारम्।' 'यज्ञ कर्म को ब्रहामण ग्रंथों में श्रेष्ठतम कर्म माना गया है। यज्ञ कर्ता वेद मंत्रों के द्वारा शुभ संकल्प करके चार प्रकार के द्रव्यों की अग्नि में आहुति देता है जिनमें कुछ सुगन्ध्ति जो वायु को शु( करने वाली, पुष्टिकारक  जो बल तथा ओज को बढ़ाने वाली, रोगनाशक जो औषध्ीय गुणों से युक्त तथा मिष्टादि द्रव्यों का भी उल्लेख मिलता है। जो अग्नि के द्वारा सूक्ष्मरूप से वायुमण्डल में ध्नात्मक ऊर्जा के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। जिसके कारण वायु की परिशु(ि होती है। ट्टग्वेद में जीवन जीने के लिए अत्यावश्यक शु( प्राणवायु को अमूल्य औषध् िके रूप में परिकल्पत किया है।
    आज अंधध्ुंध् शहरीकरण, औद्योगिकरण तथा जीवाश्म ईंध्न के अत्याध्कि उपयोग एवं वनों के विनाश तथा जनसंख्या की वृ(ि के कारण ग्रीन हाउस गैसों के अनुपात में परिवर्तन से उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग की समस्या विश्व के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है। वर्तमान समय में पर्यावरण की गतिशीलता में असंतुलन के लक्षण ओजोन परत के नष्ट होने तथा ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं तथा इनका प्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। वर्तमान समय में सर्दी, गर्मी व वर्षा में मात्रात्मक तो वृ(ि हो रही है किन्तु इनकी अवध् िमें कमी आ रही है, इनके समय तथा स्थान में भी अत्यध्कि परिवर्तन हो रहा है, जिस कारण कहीं अत्याध्कि बाढ़, कहीं पर सूखा आदि समस्याओं में अप्रत्याशित वृ(ि हो रही है। पफलस्वरूप मनुष्य व अन्य प्राणियों के जीवन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। बहुत से जीव एवं वनस्पतियाँ इस जलवायु परिवर्तन के कारण या तो लुप्त हो चुके हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। इन सबका मुख्य कारण वातावरण का प्रदूषित होना ही है।
    इस प्रकार स्पष्ट है कि वातावरण के दूषित होने में केवल स्वार्थी मनुष्य ही दोषी है। यदि समय से मनुष्य नहीं चेता तो सम्पूर्ण जीवधरियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। वर्तमान युग की इन वैश्विक समस्याओं के निराकरण के लिए हमें आध्ुनिक विज्ञान के साथ-साथ प्राचीन यज्ञ विज्ञान का समन्वय कर इनका समाधन करना चाहिए।