डॉ० स्वर्णलता कदम (एसो० प्रोफेसर)
अपनी सांस्कृतिभारत एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ नारी को ईश्वर की आद्यशक्ति का रूप माना जाता है। तैतरीय उपनिषद् में माता को ही सबसे बड़ा शिक्षक स्वीकार किया गया है। इन्हीं उच्च आदर्शों श्रेष्ठ साहित्यों, आमिय धार्मिक भावनाओं तथा अद्भुत कला एवं विज्ञान के कारण भारतीय संस्कृतिकी फुलवारी सदा सुवासित रही है। सम्भवतः यह तथ्य थोड़े से ही लोगों को ज्ञात होगा कि हमारी संस्कृति और इतिहास पर हम भारतीयों ने कम, पर विदेशियों ने अधिक अकथनीय परिण्य एवं खोज के पश्चात् महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया है। विश्व समाज में भारतीय संस्कृति को सदा से ही एक उच्च स्थान प्राप्त रहा है। अनेक देशों की संस्कृतियाँ समय-समय पर बनती रहीं, बिगड़ती रहीं। किन्तु भारतीय संस्कति की मौलिकता प्रत्येक परिस्थिति में अक्षुष्ण रहीं धर्म दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान आदि के सम्मिलित रूप को ही धर्म,संस्कृति कहते हैं। परंपरा तथा आधुनिकता के समुचित प्रयोग से ही संस्कृति को समरक्ष बनाया जा सकता है। _ 'सर्वधर्म सम्भाव' की परिकल्पना सर्वप्रथम भारत में ही उत्पन्न हुई। ___शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे दार्शनिकों ने वेदों एवं ब्रह्मसूत्र की जो व्याख्या आदिकाल में ही कर दी थी, वही हमारी आज की जीवन पद्धति का आहार बन गई। जातक कथाओं से लेकर प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पंत आदि साहित्यकारों द्वारा की गई रचनाओं तक की लम्बी साहित्यिक यात्रा विश्व संस्कृति को हमारी अनुपम भेंट है। स्थापत्यक तथा वास्तुकला के क्षेत्र में अजन्ता की गुफाएँ, रामेश्वरम् का मन्दिर, कोर्णाक का सूर्य मन्दिर, लखनऊ की भूल-भुलैया, आगरा का ताजमहल आदि क सम्पदा का सम्मान कीजिए
विश्व के लिए आज की आश्चर्य ही है। मधुबनी चित्रकला तो संसार के हृदय में रच बस गई हैं। हमारी जीवन शैली, संस्कार और आदर्श से परिपूर्ण रही हैबड़ों के प्रति आदर एवं सम्मान तथा छोटों के प्रति स्नेह एवं त्याग ही हमारी सामाजिक सरंचना का आधार है। भारत एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ नारी को ईश्वर की आद्यशक्ति का रूप माना जाता है। तैतरीय उपनिषद् में माता को ही सबसे बड़ा शिक्षक स्वीकार किया गया है। इन्हीं उच्च आदर्शों श्रेष्ठ साहित्यों, आमिय धार्मिक भावनाओं तथा अद्भुत कला एवं विज्ञान के कारण भारतीय संस्कृतिकी फुलवारी सदा सुवासित रही है। किन्तु क्या ये स्थापित प्रतिमान आज की तिथि में अपने मूल रूप में विद्यमान है? क्या आज भी धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान तथा साहित्य की वह स्थिति बनी हुई है, जिसने अतीत में हमारी संस्कृति को जीवन्त बनाया था? क्या समाज में आज भी आदर्श और संस्कार का वही अमिय रूप उपस्थित है, जिसने भारतीय संस्कृति को पवित्र बनाया था? वास्तव में आज ये सभी प्रतिमान लुप्त हो रहे हैं। प्रेम, आदर, त्याग की भावनाएँ मरती जा रही हैं, और इनके स्थान पर द्वेष, क्लेश, और स्वार्थ का जन्म होता जा रहा है। धर्म सांप्रदायिकता का शिकार है, दर्शन भौतिकता के आगे शिथिल है, साहित्य विपणनवाद की भाषा बोलता है। कला अश्लीलता के रंग में रंगी है और विज्ञान ध्वंस का पर्याय-सा बन गया है। 'सबसे बड़ी शिक्षक' मानी जाने वाली नारी की आधी आबादी आज अशिक्षित है। ईवर की शक्ति (बल) का रूप मानी जाने वाली नारी आज मानसिक एवं शारीरिक बलात्कार की पीड़ा, दुष्परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण के मूर्त रूप हैं। __विचारणीय यह है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हो गए है? हमारे उदीयमान नागरिक क्या एक स्वतंत्र नागरिक की भाँति अपनी अस्मिता को पहचानने लगे हैं, अथवा उसके अस्तित्व के प्रति जागरूक हैं? हम यदि अधिक गहराई में जाकर देखेंगे, तो हमें विदित होगा कि हमारे युवा-वर्ग के मन में भारत की मिट्टी के प्रति कोई लगाव नहीं है। मेरे भारत की मिट्टी है चंदन और अबीर कहकर वे देश की मिट्टी को मस्तक एवं आँखों से लगाएँ। इसका तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हो सकता। हमारे युवा वर्ग में भारत-दर्शन की इच्छा का सर्वथा अभाव दिखाई देता है, वे तो अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान आदि की यात्रा के लिए लालायित बने रहते हैं। चारों धाम, सप्तपुरी, आदि की यात्रा करने की खबर स्थानीय समाचार पत्रों में छपेगी और 'विदेश यात्रा' का प्रमाण पत्र नौकरी के लिए महत्वपूर्ण अर्हता बन जाएगी। हमें दूर देशों के बारे में उनकी संस्कृति, सम्पदा के बारे में तो जानकारी है, परन्तु अपने देश में अपने नगर या गाँव के बारे में तथा उनकी संस्कृति सम्पदा के बारे में जानकारी प्राप्त करने में हमें कोई रुचि नहीं होती, और न उसके लिए फिजूल वक्त ही हमारे पास है। मेरा मानना है कि आज हमारे देश के अनेक युवक-युवतियों को यह भी न मालूम होगा कि कोयल किस चिडिया का नाम है, और उसकी बोली कैसी होती है, अब प्रश्न यह है कि जिस व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज, अपने देश के बारे में जानकारी न हो, उसे अपने अतीत पर गर्व करने का क्या अधिकार है? ऐसा व्यक्ति चारण की भाँति दूसरों की गुलामी करके सन्तोष का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को लक्ष्य करके कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है"निज देश का अभिमान है वह नर नहीं है, पशु निरा है और मृतक समान है।" यदि हमें हमारी सांस्कृतिक सम्पदा को बचाना है तो हमें सबसे पहले 'मानसिकता में विकृति का नाश' करना होगा, तभी कोई उपाय कारगार सिद्ध होगा। जब हम स्वयं अपनी संस्कृति को संवारना चाहेंगे, तो उसके लिए हमें खुद ही कदम बढ़ाना होगा, अपनी सोच में परिवर्तन लाना पड़ेगा। संप्रति भाव देखें कि आज पूरा विश्व कोरोना जैसे वैश्विक महामारी से जूझ रहा है, इस महामारी से बचने के लिए सामाजिक दूरी बनाने की बात पर पूरे विश्व ने हमारी अभिवादन करने की पद्धति को दिल से अपनाया. अत: हम गर्व से कह सकते हैं कि भारतीय संस्कति और यहाँ का दर्शन अद्वितीय है। मैक्समलर महोदय ने भी लिखा था कि "यदि मझसे पछा जाए कि किस देश के मानव मस्तिष्क में अपने सर्वोत्तम गणों को सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है और कहाँ के विचारकों को ने जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक सुन्दर समाधान खोज निकाला है, तथा इसी कारण वह इस योग्य हो यगा है कि काण्ट और पलेटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुए व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है, तो मैं बिना किसी सोच विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूंगा।" ___ यह आश्चर्य ही है कि विदेशों के विद्वान इस संस्कृति और परम्परा की प्रशंसा करते नहीं थकते और हम भौतिकवाद की अंधी दौड में अपने संस्कार ही भूलते चले जा रहे हैं। संस्कृति की सुवासित फुलवारी के फल भी हम ही हैं और माली भी हम, अत: अपनी संस्कृति रुपी फुलवारी को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं आज हमें यह सोचना होगा? हम कौन थे? क्या हो गए? और क्या होंगे अभीआओ मिल बैठकर सोचे ये समस्याएँ सभी.... जय हिन्द, जय भारत